प्रशासनिक कदम या लोकतांत्रिक चुनौती?
पश्चिम बंगाल में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के दौरान चुनाव आयोग द्वारा
केंद्रीय बलों की तैनाती की मांग केवल एक प्रशासनिक कदम नहीं है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की
मौजूदा स्थिति पर कई असहज सवाल खड़े करता है। एक तरफ़ आयोग अपने कर्मचारियों की सुरक्षा का
हवाला देकर केंद्रीय गृह मंत्रालय से चौबीसों घंटे सुरक्षा मांग रहा है, तो वहीँ दूसरी ओर करोड़ों मतदाताओं
के नाम हटने, “अज्ञात” घोषित होने और वंशानुक्रम मैपिंग जैसी जटिल प्रक्रियाओं ने जनता के मन में
अविश्वास को और गहरा कर दिया है।
चौंकाने वाले आंकड़े: सिर्फ़ आंकड़े नहीं, अधिकारों का सवाल
पश्चिम बंगाल में मतदाता सूची से 58 लाख नाम हटाए गए, 32 लाख ‘अज्ञात’ घोषित किये गए। सवाल
सिर्फ़ आंकड़ों का नहीं, आयोग के अपने आंकड़े बताते हैं कि 7.66 करोड़ मतदाताओं की पिछली सूची में
से भले ही 92.40% नाम बरकरार रखे गए हों, लेकिन 58.20 लाख नाम हटाए गए, जिनमें 32 लाख
मतदाता “अज्ञात” बताए गए हैं। इसके अलावा 1.36 करोड़ मतदाताओं के वंशानुक्रम मैपिंग में
विसंगतियां पाई गई हैं।
ये आंकड़े सामान्य तकनीकी सुधार नहीं लगते, बल्कि ऐसे प्रशासनिक हस्तक्षेप
प्रतीत होते हैं जिनका सीधा असर मतदान के अधिकार पर पड़ता है। यही कारण है कि बीएलओ और
कर्मचारियों पर काम का दबाव बढ़ा, विरोध प्रदर्शन हुए और अंततः आयोग ने “गंभीर सुरक्षा जोखिम” का
हवाला देकर केंद्रीय बलों की मांग कर दी। लेकिन सवाल यह है कि क्या सुरक्षा संकट की जड़ कर्मचारियों
का विरोध है, या वह अविश्वास जो इस पूरी प्रक्रिया को लेकर आम मतदाताओं और राजनीतिक दलों में
फैल रहा है?
चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर बढ़ते सवाल
चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल:- पिछले कुछ वर्षों में विपक्षी दल लगातार यह आरोप लगाते रहे
हैं कि चुनाव आयोग भाजपा के हितों के अनुरूप काम कर रहा है। यह आरोप हवा में नहीं हैं; मतदाता
सूची संशोधन, चुनावी समय-सारिणी और केंद्रीय एजेंसियों की सक्रियता जैसे मुद्दों ने इन शंकाओं को
जन्म दिया है।
विपक्ष की ज़िम्मेदारी: नारेबाज़ी से आगे बढ़कर
लेकिन अगर विपक्ष सचमुच मानता है कि आयोग “वोट चोरी” का औज़ार बन गया है, तो
सिर्फ़ नारे लगाना “वोट चोर, गद्दी छोड़” राजनीतिक संतोष तो दे सकता है, लेकिन लोकतांत्रिक
समाधान नहीं। इसके लिए ज़मीन पर संघर्ष की ज़रूरत है।
लोकतंत्र की रक्षा का असली मोर्चा आज रैलियों के मंच से ज़्यादा वार्ड और बूथ स्तर पर है। विपक्ष को
चाहिए कि वह ज़मीन पर उतरे, वार्ड-वार्ड जाकर मतदाता सूचियों की जांच करे, जहाँ गड़बड़ियां हों, वहाँ
प्रपत्र 6 के ज़रिए नाम जुड़वाने में लोगों की मदद करे, वार्ड और बूथ स्तर पर सहायता शिविर लगाए,
और उन 32 लाख “अज्ञात” मतदाताओं तक पहुंचे जिनका नाम 2002 की सूची से नहीं जोड़ा जा सका।
चुनाव आयोग ने खुद माना है कि हटाए गए वैध मतदाता दोबारा आवेदन कर सकते हैं और अब तक
3.24 लाख आवेदन आ भी चुके हैं। यह आंकड़ा बताता है कि यदि राजनीतिक दल सक्रिय भूमिका
निभाएं, तो लाखों नागरिकों का मताधिकार बचाया जा सकता है।

केंद्रीय बल बनाम लोकतांत्रिक भरोसा
केंद्रीय बलों की तैनाती कर्मचारियों की सुरक्षा सुनिश्चित कर
सकती है, लेकिन लोकतंत्र की सुरक्षा सिर्फ़ बंदूकों से नहीं होती। इसके लिए भरोसा चाहिए—मतदाता का
भरोसा कि उसका नाम बिना वजह नहीं कटेगा, और राजनीतिक दलों का भरोसा कि चुनावी प्रक्रिया
निष्पक्ष है। यह भरोसा पारदर्शिता, संवाद और ज़मीनी सहभागिता से आता है, न कि केवल सुरक्षा घेरों से।
निष्कर्ष: लोकतंत्र सक्रियता से बचता है
पश्चिम बंगाल में एसआईआर सिर्फ़ मतदाता सूची का अभ्यास नहीं, बल्कि यह लोकतंत्र की सेहत की
परीक्षा भी है। यदि चुनाव आयोग पर सवाल उठ रहे हैं, तो विपक्ष की ज़िम्मेदारी भी उतनी ही बढ़ जाती
है। नारेबाज़ी के साथ-साथ ज़मीनी काम, जैसे वार्ड स्तर पर नामों की जांच, लोगों की मदद और कानूनी
प्रक्रियाओं का उपयोग ही वह रास्ता है जिससे “वोट चोरी” के आरोपों का वास्तविक जवाब दिया जा
सकता है। वरना इतिहास गवाह है: लोकतंत्र सिर्फ़ शिकायतों से नहीं, सक्रिय नागरिक और सक्रिय विपक्ष
से बचता है।
Also Read: हत्या, हत्या होती है, चाहे वह गोली से हो, चाकू से हो या लाठी से

