अदालती फ़ैसले का मूल्यांकन
उत्तर प्रदेश की एक अदालत द्वारा मो. अख़लाक़ लिंचिंग मामले में आरोपियों के ख़िलाफ़ मुक़दमा वापस लेने की योगी सरकार की याचिका का खारिज़ होना सिर्फ़ एक क़ानूनी आदेश नहीं है, बल्कि यह फ़ैसला भारत में भीड़ हिंसा, मॉब लिंचिंग, गौ रक्षा के नाम पर आतंक, राजनीतिक संरक्षण और न्यायिक जवाबदेही के पूरे विमर्श पर एक अहम टिप्पणी है।
सरकार बनाम न्याय
सरकार बनाम न्याय:- राज्य सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के तहत यह दलील दी थी कि मुक़दमा वापस लेना “सामाजिक सद्भाव” के हित में है। लेकिन अदालत ने स्पष्ट किया कि सद्भाव का तर्क उस वक़्त खोखला हो जाता है, जब मामला एक सुनियोजित भीड़ हत्या का हो और ट्रायल अपने महत्वपूर्ण चरण में पहुंच चुका हो। कोर्ट ने सरकार की हर उस दलील को आधारहीन बताया, जिनके ज़रिए वह अभियुक्तों को राहत दिलाना चाहती थी। खास तौर पर यह तथ्य अहम है कि सरकार ने केस वापसी के लिए वही तर्क दोहराए, जिन्हें वह स्वयं आठ साल पहले आरोपियों की जमानत का विरोध करते समय ख़ारिज कर चुकी थी। यह अपने आप में राज्य की बदली हुई मंशा और राजनीतिक प्राथमिकताओं की ओर इशारा करता है। ये तो इस देश की खुशनसीबी है कि अभी अदालतों में इंसाफ
बाक़ी है कुछ न्यायाधीशों को छोड़ें तो अदालतों से इंसाफ की उम्मीद की जा सकती है लेकिन ऐसे इंसाफ़पसन्द न्यायधीशों की देश में कमी होती जा रही है।
कोर्ट की सख़्त टिप्पणी
कोर्ट की सख़्त टिप्पणी:- अदालत ने न सिर्फ़ केस वापसी की याचिका को खारिज़ किया, बल्कि यह भी साफ़ किया कि: हत्या में इस्तेमाल लाठी-डंडों की बरामदगी हुई थी, पीड़ित परिवार और अभियुक्तों के बीच कोई पुरानी दुश्मनी भी नहीं थी। गवाही की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इन तथ्यों के रहते केस वापस लेने का कोई क़ानूनी या नैतिक आधार नहीं बनता। कोर्ट का यह निर्देश कि अब मामले की रोज़ाना सुनवाई होगी और गवाहों को ज़रूरत पड़ने पर सुरक्षा दी जाएगी, यह दर्शाता है कि न्यायपालिका इस मुक़दमे को सिर्फ़ काग़ज़ी औपचारिकता नहीं बनने देना चाहती।
राजनीति की छाया
राजनीति की छाया:- इस मामले में अभियुक्तों में एक स्थानीय भाजपा नेता के बेटे का नाम होना और सरकार द्वारा मुक़दमा वापस लेने की कोशिश करना, दोनों बातों ने इस केस को एक साधारण आपराधिक मुक़दमे से कहीं आगे पहुंचा दिया है। यह सवाल उठना लाज़मी है कि क्या सरकार की “सद्भाव” की परिभाषा सत्ता-समर्थित हिंसा के आरोपियों को राहत देने तक सीमित है? अख़लाक़ की हत्या के बाद देश में जिस तरह “गौरक्षा” के नाम पर हिंदुत्ववादी भीड़ द्वारा हिंसा की घटनाओं का सिलसिला तेज़ हुआ, उसे देखते हुए यह मामला एक मिसाल बन चुका है। अगर इस केस में भी अभियुक्तों को क़ानूनी रास्तों से बचा लिया जाता है तो यह संदेश जाएगा कि भीड़ की हिंसा पर राज्य की मौन स्वीकृति है।
इन्साफ का अधूरा सफर
इन्साफ का अधूरा सफर:- हालांकि अदालत का ताज़ा फ़ैसला अख़लाक़ के परिवार के लिए राहत भरा है, लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि नौ साल बाद भी ट्रायल अपने शुरुआती चरण में ही है। अब तक केवल एक ही गवाह का बयान दर्ज हो पाना भारतीय न्याय प्रणाली की सुस्त रफ़्तार पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है।
निष्कर्ष: न्याय की कसौटी
अख़लाक़ लिंचिंग मामले में अदालत का यह आदेश सिर्फ़ सरकार की याचिका की हार नहीं है, बल्कि यह उस सोच की भी पराजय है जो “सद्भाव” के नाम पर इंसाफ़ से समझौता करना चाहती है। यह फ़ैसला याद दिलाता है कि लोकतंत्र में सरकारें बदल सकती हैं, बयान बदल सकते हैं, लेकिन न्याय की कसौटी वही रहती है: अपराध हुआ या नहीं, और दोषी कौन है। अब यह मुक़दमा सिर्फ़ अख़लाक़ के परिवार का नहीं, बल्कि उस भारत की आत्मा का इम्तिहान है, जो यह तय करेगा कि भीड़ के सामने क़ानून झुकेगा या क़ानून भीड़ को झुकाएगा।
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