शक्तिशाली आरोपियों के मामले और न्याय व्यवस्था पर गहरे सवाल
उन्नाव के नाबालिग से बलात्कार के मामले में दोषी पाए जाने के बाद उम्रक़ैद की सज़ा काट रहे, भाजपा के निष्कासित नेता कुलदीप सिंह सेंगर की सज़ा पर रोक लगाते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के ज़मानत देने का मामला अभी सुर्ख़ियों में ही था तब तक एक और भाजपाई बलात्कारी का मामला सामने आया है।
मध्य प्रदेश के शिवपुरी से सामने आया यह मामला केवल एक कथित बलात्कार का नहीं है, बल्कि यह उस गहरे संकट की तस्वीर है जिसमें पीड़िताएँ तब फँस जाती हैं जब आरोपी प्रभावशाली हो, सत्ता के करीब हो और पूरा तंत्र ‘मैनेजमेंट’ मोड में चला जाए। भाजपा नेता की बहू बनने की आस से लेकर ज़हर खाने तक का यह सफ़र, भारतीय न्याय व्यवस्था और सामाजिक संवेदनहीनता पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
शादी का वादा: एक परिचित पैटर्न?
पीड़िता के आरोपों के अनुसार, उसका संबंध भाजपा नेता गायत्री शर्मा के बेटे रजत शर्मा से था। रजत शर्मा ने पीड़िता से पारिवारिक सहमति के संकेत दे कर शादी का वादा किया था, और फिर अचानक दूसरी जगह सगाई कर ली। यह पैटर्न भारत में ‘शादी के झूठे वादे’ से जुड़े यौन शोषण के मामलों में बार-बार सामने आता है। फर्क सिर्फ़ इतना है कि यहाँ आरोपी पक्ष एक सत्ताधारी दल से जुड़ा है, जिससे शक्ति-संतुलन पूरी तरह बिगड़ जाता है।
न्याय की राह में रोड़े: थाने से अदालत तक
पीड़िता का दावा है कि 14 अप्रैल को, जब आरोपी की सगाई हो रही थी तब वह थाने पहुँची लेकिन पाँच घंटे इंतज़ार के बावजूद शिकायत दर्ज नहीं की गई। जो पुलिस की निष्पक्षता और संवेदनशीलता पर गंभीर प्रश्न है। बाद में एफआईआर दर्ज होना और चार्जशीट दाख़िल होना यह दिखाता है कि मामला दबाया तो नहीं गया, लेकिन देरी और दबाव के आरोप सिस्टम की कार्यप्रणाली पर शक पैदा करते हैं।
सुसाइड नोट: भयावहता की नई परत
छह पन्नों का सुसाइड नोट इस मामले को और भयावह बना देता है। इसमें न केवल आरोपी युवक, बल्कि उसकी माँ जो स्वयं नगर परिषद अध्यक्ष है और पिता पर मानसिक उत्पीड़न, धमकी और समझौते का दबाव डालने के आरोप हैं। 50 लाख रुपये की पेशकश का दावा बताता है कि न्याय को ‘सेटलमेंट’ में बदलने की कोशिश कितनी खुलेआम होती है, खासकर तब जब राजनीतिक और प्रशासनिक रसूख मौजूद हो।
सामाजिक दबाव और मानसिक उत्पीड़न: समाज का आईना
पिछले सात महीनों से अपमान, धमकी और ‘त्याग-सिखाने’ जैसे तानों ने पीड़िता को मानसिक रूप से तोड़ दिया है, यह उसका कथन नहीं, बल्कि हमारे समाज का आईना है। अक्सर पीड़िता से ही समझौता, चुप्पी और बलिदान की उम्मीद की जाती है, जबकि आरोपी पक्ष ‘इज़्ज़त’ और ‘करियर’ के नाम पर संरक्षण पाता है।
राजनीतिक जवाबदेही: क्या हैं मानक?
पीड़िता ने प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री से न्याय की गुहार लगाई है। यह अपील अपने-आप में बताती है कि स्थानीय स्तर पर उसे न्याय मिलने की उम्मीद कम थी। सवाल यह है कि क्या सत्ताधारी दल से जुड़े मामलों में राजनीतिक दल नैतिक जिम्मेदारी लेते हैं? क्या पद पर बैठे लोगों के लिए अलग मानक होने चाहिए?
आगे की रास्ता: कानून से परे न्याय
पुलिस का कहना है कि मामला अदालत में है और महिला के बयान के बाद आगे की कार्रवाई होगी। लेकिन न्याय केवल कानूनी प्रक्रिया से नहीं, बल्कि पीड़िता की सुरक्षा, उसकी गरिमा और मानसिक पुनर्वास से भी जुड़ा है। सुसाइड नोट की निष्पक्ष जाँच हो, धमकी देने वालों की पहचान और जवाबदेही तय करना अनिवार्य है।
शिवपुरी का यह मामला हमें याद दिलाता है कि कानून किताबों में समान हो सकता है, लेकिन ज़मीन पर उसका असर शक्ति और प्रभाव से तय होता है। जब तक राजनीतिक रसूख से परे जाकर निष्पक्ष जाँच और त्वरित न्याय सुनिश्चित नहीं होगा, तब तक ऐसी घटनाएँ सिर्फ़ खबरें बनती रहेंगी और पीड़िताएँ, सिस्टम की चक्की में पिसती रहेंगी।
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