महाराष्ट्र में नगर निगम चुनावों की आहट के साथ ही मुंबई की सियासत उबाल पर है। देश की सबसे अमीर
नगर निगम बृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) अब सिर्फ़ स्थानीय निकाय का चुनाव नहीं, बल्कि
महाराष्ट्र की राजनीति की दिशा तय करने वाली निर्णायक लड़ाई बन चुकी है।
इसी संदर्भ में राज ठाकरे और
उद्धव ठाकरे का गठबंधन एक साधारण राजनीतिक समझौता नहीं, बल्कि बदलते सत्ता-संतुलन का बड़ा
संकेत है। बीबीसी मराठी के मुताबिक़ राज ठाकरे का यह बयान कि “मुंबई का मेयर मराठी होगा और वह
हमारा होगा” सीधे-सीधे इस चुनाव की वैचारिक रेखा खींच देता है। एक तरफ़ बीजेपी है, जो हर हाल में मुंबई
को अपने क़ब्ज़े में लाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है तो वहीँ दूसरी तरफ़ ठाकरे बंधु हैं, जो बिखराव
के दौर के बाद अब ‘मुंबई बचाओ’ की राजनीति के तहत एकजुट हो गए हैं।
मुंबई सिर्फ़ नगर निगम नहीं, सत्ता की चाबी है:-
मुंबई बीएमसी का बजट कई राज्यों से बड़ा है। यही वजह है
कि बीजेपी लंबे समय से मुंबई को अपना अगला बड़ा क़िला बनाना चाहती है। शिवसेना के दो फाड़ होने के
बाद बीजेपी को लगा था कि ठाकरे परिवार की पकड़ ढीली पड़ चुकी है और अब मुंबई जीतना आसान होगा।
लेकिन राज और उद्धव ठाकरे का साथ आना इस गणित को पूरी तरह बदल सकता है। यह गठबंधन
बीजेपी के लिए इसलिए भी चुनौती है क्योंकि वह मुंबई में ‘डबल इंजन सरकार’ के नाम पर आक्रामक
अभियान चला रही है। केंद्र और राज्य में सत्ता होने के बावजूद अगर बीजेपी बीएमसी जीतने में नाकाम
रहती है, तो यह उसकी राजनीतिक रणनीति पर बड़ा सवाल होगा।
ठाकरे बंधु का मिलाप; मजबूरी या रणनीति?:-
राज और उद्धव ठाकरे का साथ आना भावनात्मक से ज़्यादा
राजनीतिक मजबूरी का नतीजा दिखता है। मराठी अस्मिता, भाषा और ‘मुंबई किसकी?’ जैसे सवालों पर
दोनों की राजनीति हमेशा से घूमती रही है। जुलाई में मराठी भाषा के मुद्दे पर एक मंच साझा करना इस
गठबंधन का ट्रेलर था, बीएमसी चुनाव उसका फुल फ़िल्मी संस्करण है। उद्धव ठाकरे के लिए यह चुनाव
इसलिए अहम है क्योंकि शिवसेना टूटने के बाद उनकी पार्टी की राजनीतिक विश्वसनीयता दांव पर है। वहीं
राज ठाकरे के लिए यह मौका अपनी पार्टी को एक बार फिर मुंबई की मुख्यधारा में स्थापित करने का है।
दोनों जानते हैं कि अलग-अलग लड़ने का मतलब बीजेपी को सीधा फ़ायदा देना होगा।
बीजेपी की चिंता और ठाकरे ब्रांड:-
बीजेपी ने महाराष्ट्र में सत्ता भले ही हासिल कर ली हो, लेकिन मुंबई अब
भी ठाकरे ब्रांड का गढ़ रही है। बाल ठाकरे की विरासत, मराठी मानुष की राजनीति और बीएमसी पर दशकों
का नियंत्रण, ये सब ऐसे कारक हैं जिन्हें बीजेपी अब तक पूरी तरह तोड़ नहीं पाई है। ठाकरे बंधुओं का
गठबंधन इसी विरासत को नए सिरे से राजनीतिक हथियार बनाने की कोशिश है। संदेश साफ़ है बीजेपी भले
ही राज्य और केंद्र में मज़बूत हो, लेकिन मुंबई अभी भी ठाकरे परिवार की ज़मीन है।
आगे की राह:-
यह चुनाव सिर्फ़ नगरसेवकों की संख्या तय नहीं करेगा, बल्कि यह बताएगा कि महाराष्ट्र की
राजनीति में असली धुरी कौन है,लेकिन चुनाव ईमानदाराना होने चाहिए। दिल्ली-केंद्रित बीजेपी या मुंबई-
केंद्रित मराठी अस्मिता की राजनीति। एक तरफ़ बीजेपी पूरी ताक़त से मुंबई हासिल करने में जुटी है, तो
दूसरी तरफ़ ठाकरे बंधु अपने पुराने मतभेद भुलाकर शहर को अपने क़ब्ज़े में रखने के लिए एक हो गए हैं।
ऐसे में बीएमसी चुनाव अब स्थानीय नहीं, बल्कि महाराष्ट्र की राजनीति का सेमीफ़ाइनल बन चुका है
जिसका फ़ाइनल 2029 की बड़ी सियासत में दिख सकता है।
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