2015 में दादरी के बिसाहड़ा गांव में मोहम्मद अख़लाक़ की हिंदुत्ववादी भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या केवल एक व्यक्ति की जान लेने की घटना नहीं थी, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र, कानून के शासन और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर एक गहरा हमला थी। इस घटना ने उस दौर की शुरुआत की, जिसमें “संदेह”, “भीड़” और “दंडहीनता” धीरे-धीरे सार्वजनिक जीवन का हिस्सा बनते चले गए। अब, लगभग एक दशक बाद, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इस मामले में आरोपियों के खिलाफ मुकदमा वापस लेने की कोशिश ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या राज्य सत्ता न्याय के साथ खड़ी है या हिंदुत्ववादी भीड़ के साथ।
माकपा की वरिष्ठ नेता वृंदा करात द्वारा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को लिखा गया पत्र इसी संदर्भ में बेहद महत्वपूर्ण है। यह पत्र केवल एक राजनीतिक आपत्ति नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए की गई अपील है। करात का तर्क सीधा और गंभीर है—जब हत्या, हत्या के प्रयास और मॉब लिंचिंग जैसे संगीन अपराधों में सरकार खुद पीछे हटने लगे, तो न्याय व्यवस्था का अर्थ ही क्या रह जाएगा? एलान के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

राज्यपाल की भूमिका पर भी सवाल
इस पूरे प्रकरण का सबसे चिंताजनक पहलू राज्यपाल की भूमिका है। उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने, ऐसे समय में जब मुख्य गवाह अदालत में साक्ष्य दे चुका है, सरकार को मुकदमा वापस लेने की अनुमति दे दी। संविधान के तहत राज्यपाल का दायित्व केवल औपचारिक स्वीकृति देना नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि सरकार का हर कदम संविधान और कानून के अनुरूप हो। सवाल यह है कि क्या एक सक्रिय और संवेदनशील संवैधानिक प्रमुख को ऐसे फैसले पर आपत्ति नहीं जतानी चाहिए थी?
न्याय बनाम “सद्भाव” का तर्क
सरकारें अक्सर ऐसे मामलों में “सद्भाव बनाए रखने” का तर्क देती हैं। लेकिन क्या सद्भाव का अर्थ यह है कि हत्या जैसे अपराधों को माफ़ कर दिया जाए? यदि भीड़ द्वारा की गई हिंसा को राजनीतिक सहूलियत के नाम पर नज़रअंदाज़ किया जाएगा, तो यह एक खतरनाक मिसाल बनेगी। इससे यह संदेश जाएगा कि भीड़ का न्याय, कानून से ऊपर है।
पीड़ित परिवार का दर्द और योगी की बेरुख़ी
वृंदा करात का पत्र इस बात की भी याद दिलाता है कि इस मामले में केवल कानूनी पहलू नहीं, बल्कि मानवीय पक्ष भी है। अख़लाक़ का बेटा दानिश आज भी उस हमले के शारीरिक और मानसिक घावों से उबर नहीं पाया है। पीड़ित परिवार, जिसने वर्षों तक न्याय की उम्मीद में अदालतों के चक्कर लगाए, आज फिर से निराशा के अंधेरे में धकेला जा रहा है। और इससे लोगों का कानून पर से भरोसा भी उठ जायेगा।
अदालत की अगली सुनवाई और लोकतंत्र की कसौटी
12 दिसंबर को होने वाली सुनवाई टलकर अब 18 दिसंबर तय हुई है। यह तारीख केवल एक कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की एक अहम कसौटी है। सवाल यह नहीं है कि सरकार मुकदमा वापस ले सकती है या नहीं, बल्कि सवाल यह है कि क्या उसे ऐसा करना चाहिए? अख़लाक़ लिंचिंग मामला आज सिर्फ एक केस नहीं, बल्कि यह तय करने का पैमाना बन गया है कि भारत में कानून का राज सर्वोपरि है या राजनीतिक इच्छाशक्ति।
यदि ऐसे मामलों में राज्य खुद पीछे हट जाएगा, तो यह न केवल पीड़ितों के साथ अन्याय होगा, बल्कि संविधान की आत्मा पर भी एक गहरा आघात होगा। यही वजह है कि वृंदा करात का राष्ट्रपति को लिखा गया पत्र एक चेतावनी की तरह देखा जाना चाहिए क्योंकि अगर अब भी संवैधानिक संस्थाएं चुप रहीं, तो न्याय केवल काग़ज़ों में सिमट कर रह जाएगा।

