हिंदुत्ववादी भीड़ की हिंसा : केरल के पलक्कड़ में छत्तीसगढ़ के मज़दूर रामनारायण बघेल की पीट-पीटकर हत्या सिर्फ़ एक आपराधिक घटना
नहीं है, बल्कि यह उस ख़तरनाक सामाजिक और राजनीतिक माहौल का नतीजा है, जिसमें धर्म, संदेह, अफ़वाह और
पहचान की राजनीति को लगातार हवा दी जा रही है। जिस व्यक्ति को ‘बांग्लादेशी’ कहकर मार दिया गया, वह एक
ग़रीब हिंदू मज़दूर था जो अपने परिवार के लिए रोटी कमाने निकला हुआ था। यह सवाल अब टाला नहीं जा सकता
कि मॉब लिंचिंग की जिस राजनीति को वर्षों से ‘दूसरों’ के ख़िलाफ़ भड़काया गया, वही आग अब हिंदुओं को भी
अपनी चपेट में लेने लगी है।
पहचान के शक से मौत तक
रामनारायण बघेल की कहानी भारत के करोड़ों प्रवासी मज़दूरों की तरह ही है, जो घर
की छत पूरी करने का सपना, परिवार की ज़िम्मेदारी और रोज़ी-रोटी की तलाश में निकला था लेकिन केरल में उन्हें
न काम मिला, न घर लौटने का मौक़ा। रास्ता भटकने, शक होने और अफ़वाह फैलने भर से हिंदुत्ववादी भीड़ ने उन्हें
“बांग्लादेशी” घोषित कर दिया और जान ले ली। यह वही पैटर्न है जो देश के कई हिस्सों में देखा गया है, पहले शक,
फिर भीड़, और अंत में हिंसा। न कोई पूछताछ, न कोई क़ानून, सिर्फ़ तत्काल ‘सज़ा’।
राजनीति का टकराव
घटना के बाद केरल में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप तेज़ हैं। सीपीएम और राज्य सरकार के
मंत्री इसे आरएसएस की नफ़रत की राजनीति का परिणाम बता रहे हैं, जबकि बीजेपी इसे ‘स्थानीय बनाम बाहरी’
का मामला कहकर राजनीतिक रंग देने से इनकार कर रही है। लेकिन तथ्य यह है कि गिरफ़्तार अभियुक्तों की
वैचारिक पृष्ठभूमि पर बहस से ज़्यादा ज़रूरी यह समझना है कि भीड़ को यह नैतिक साहस कहां से मिला कि वह
किसी को विदेशी, चोर या अपराधी घोषित कर दे। यह साहस अचानक पैदा नहीं होता बल्कि यह सालों की
बयानबाज़ी, अफ़वाहों और ‘पहचान आधारित डर’ की देन है।
आरएसएस की राजनीति और उलटा असर
पिछले कुछ वर्षों में ‘घुसपैठिए’, ‘अवैध विदेशी’ और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’
जैसे शब्दों का इस्तेमाल जिस तरह आम भाषणों और प्रचार में हुआ है, उसने समाज में स्थायी शक का माहौल
बनाया है। यह शक अब सिर्फ़ मुसलमानों या किसी एक समुदाय तक सीमित नहीं रहा। रामनारायण बघेल हिंदू थे,
दलित समाज से आते थे, फिर भी भीड़ के लिए यह मायने नहीं रखता था। चेहरे, भाषा या अकेले होने भर से उन्हें
‘दूसरा’ बना दिया गया। यह वही मोड़ है जहां नफ़रत की राजनीति अपने ही दावों को निगलने लगती है।
सभ्य समाज का टूटता हुआ आईना
केरल लंबे समय से सामाजिक चेतना, प्रवासी मज़दूरों की स्वीकार्यता और
साम्प्रदायिक सौहार्द्र के लिए जाना जाता रहा है। लेकिन मधु से लेकर रामनारायण तक की घटनाएं बताती हैं कि
कोई भी समाज इस ज़हर से अछूता नहीं है। मॉब लिंचिंग की घटनाओं के बीच घटता अंतराल इस बात का संकेत है
कि समस्या सिर्फ़ क़ानून-व्यवस्था की नहीं, बल्कि सामाजिक सोच की भी है।
ज़िम्मेदारी किसकी?
सरकारें एसआईटी बनाती हैं, बयान देती हैं, मुआवज़े की घोषणा करती हैं, यह सब ज़रूरी है।
लेकिन उससे ज़्यादा ज़रूरी है यह स्वीकार करना कि भीड़ की हिंसा एक संगठित मानसिकता का नतीजा है। जब
तक नफ़रत फैलाने वाली राजनीति पर स्पष्ट और ईमानदार रोक नहीं लगेगी, तब तक रामनारायण जैसे लोग मरते
रहेंगे चाहे फिर वे किसी भी धर्म के हों। आज यह आग हिंदुओं को भी जला रही है। कल यह किसी और को जला
सकती है। सवाल यह नहीं कि अगला शिकार कौन होगा, सवाल यह है कि क्या समाज और राजनीति समय रहते
इस आग को बुझाने का साहस दिखाएंगे? रामनारायण बघेल की मौत सिर्फ़ एक परिवार की त्रासदी नहीं है बल्कि यह
उस भारत के लिए चेतावनी है, जहां भीड़ को इंसाफ़ का ठेकेदार बना दिया गया है।
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