एक विधायी कदम से परे: बड़ी बहस का प्रतीक
कर्नाटक विधानसभा में हेट स्पीच और हेट क्राइम (रोकथाम) विधेयक, 2025 का पारित होना सिर्फ़ एक विधायी घटना नहीं, बल्कि आज के भारत में संविधान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सत्ता की राजनीति के बीच चल रहे गहरे संघर्ष का प्रतीक है। एक ओर भाजपा (कर्नाटक का विपक्ष) इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला बताकर खारिज कर रहा है, तो दूसरी ओर कांग्रेस सरकार इसे सामाजिक सौहार्द और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए अनिवार्य कदम बता रही है।
हिंसा का औज़ार बन चुके हैं नफ़रती भाषण
यह बहस यूँ ही नहीं है। बीते वर्षों में नफ़रती भाषण महज़ शब्द नहीं रहे बल्कि वो हिंसा, हत्याओं और सामुदायिक ध्रुवीकरण में तब्दील हो चुके हैं। तटीय कर्नाटक इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जहाँ अफ़वाह, उकसावे और ज़हर घोलते भाषणों ने जानें लीं। ऐसे संदर्भ में गृह मंत्री जी. परमेश्वर का यह कहना कि निवारक प्रतिबंध स्थायी समाधान नहीं हो सकते, एक प्रशासनिक सच्चाई को रेखांकित करता है, कानून प्रवर्तन के पास स्पष्ट, दंडात्मक और समयबद्ध औज़ार होने चाहिए।
अनुच्छेद 19 की अवधारणा पर सवाल
भाजपा का तर्क है कि यह विधेयक संविधान के अनुच्छेद 19(1) का उल्लंघन करता है। लेकिन संविधान स्वयं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को उचित प्रतिबंधों के अधीन मानता है। ख़ासकर जब सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और दूसरों के अधिकारों पर आघात हो। सवाल यह नहीं कि अभिव्यक्ति स्वतंत्र हो या नहीं; सवाल यह है कि क्या नफ़रत फैलाने वाली अभिव्यक्ति को भी वही संरक्षण मिले जो आलोचना, असहमति और सत्य को मिलता है? कर्नाटक का विधेयक इसी रेखा को खींचने की कोशिश करता है, जहाँ शब्द हिंसा का औज़ार बनते हैं, वहाँ राज्य हस्तक्षेप करे।
दुरुपयोग की आशंका बनाम आवश्यकता की वास्तविकता
विरोध का दूसरा बड़ा आधार दुरुपयोग की आशंका है। यह चिंता निराधार नहीं, भारत में कई क़ानूनों का चयनात्मक इस्तेमाल हुआ है। परंतु दुरुपयोग की आशंका किसी क़ानून की आवश्यकता को ख़ारिज करने का आधार नहीं हो सकती; इसका समाधान पारदर्शी प्रक्रियाओं, न्यायिक निगरानी और जवाबदेही में है। विधेयक में जेएमएफ़सी अदालतों के माध्यम से मुक़दमे की व्यवस्था और बार-बार अपराध पर कठोर दंड, ये संकेत देते हैं कि उद्देश्य डर पैदा करना नहीं, बल्कि रोकथाम है।
भारत की दो तस्वीरें: राजनीतिक विरोधाभास
यहीं से राजनीतिक विरोधाभास उभरता है। एक ओर भाजपा-शासित राज्यों और केंद्र में ऐसे क़ानून और नीतियाँ दिखती हैं जिन पर समाज को बाँटने, असहमति को दबाने और संविधान की आत्मा को कमज़ोर करने के आरोप लगते रहे हैं। दूसरी ओर कर्नाटक में कांग्रेस सरकार एक ऐसे क़ानून को आगे बढ़ा रही है जिसका दावा है कि वह धर्म, जाति, भाषा, लिंग हर पहचान के आधार पर फैलने वाली घृणा के विरुद्ध ढाल बनेगा। यह फर्क़ सिर्फ़ क़ानून का नहीं, राजनीति की दिशा का भी है।
कांग्रेस का एक अधूरा आत्मालोचन
हालाँकि, इस क्षण में कांग्रेस के लिए आत्मालोचन भी ज़रूरी है। काश, जब पार्टी केंद्र की सत्ता में थी, तब नफ़रती भाषण और अपराध के विरुद्ध ऐसे स्पष्ट, मज़बूत क़ानून बनाए गए होते तो शायद भाजपा के लिए हिंदू–मुस्लिम ध्रुवीकरण को चुनावी ईंधन बनाकर सत्ता हासिल करना इतना आसान न होता। देर से उठाया गया सही क़दम भी क़दम ही होता है लेकिन देर की क़ीमत देश चुका रहा है।
क़ानून का भविष्य और सियासत का द्वंद्व
कर्नाटक का हेट स्पीच क़ानून कोई चमत्कारिक समाधान नहीं है। इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि इसे निष्पक्षता, पारदर्शिता और संवैधानिक मर्यादाओं के भीतर कैसे लागू किया जाता है। पर इतना स्पष्ट है कि नफ़रत को अभिव्यक्ति कहकर सामान्य बनाने की राजनीति से देश को बचाने के लिए राज्य को आगे आना ही होगा।
निष्कर्ष: चुप्पी नहीं, क़ानून बोले
संविधान सिर्फ़ किताब में लिखा दस्तावेज़ नहीं बल्कि वह समाज में रोज़-रोज़ बचाया और मजबूत किया जाता है। कर्नाटक ने कम-से-कम यह बहस तो देश के सामने रख दी है कि नफ़रत के दौर में चुप्पी नहीं, क़ानून बोलना चाहिए। अगर देश के वो राज्य जहां भाजपा की सत्ता नहीं है अब भी ऐसे कानून बनाते हैं तो भविष्य में इन राज्यों में हिन्दू – मुस्लिम की राजनीतीक ध्रुवीकरण को चुनावी ईंधन बनाकर सत्ता हासिल करना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुम्किन होगा, लेकिन क्या भाजपा आसानी से ऐसे कानून बनाने देगी, क्योंकि उसकी राजनीती का असल भांडवल ही ये है।
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